आमों पर अब बाउर आने लगा होगा
बगिया में लोगों की खटिया जाने लगा होगा
उस समय को जो बहुत आगे जा चुका है
मै आज भी जब कभी निहारता हुं
ना जाने क्यूँ ,,,, अनायश ही
अपने आप को माटी की सोंधी सोंधी खुशबु में पाता हूँ
कोटवा की रेह ,
पकड़िया की छाह
बरगदवा के नीचे का खेला
वो कुल्फी वो खीरा
वो काकर वो खर्बुज्जा
जब कभी भी याद आता है
ना जाने क्यूँ ,,,,अनायश ही
मै अपने आप को वही अपनों के बीच में पता हूँ
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